काश हम लोग भी पेड़ों के बने होते, अपने ढीट स्थान में खड़े गड़े होते,
जीवन निर्वाह मिट्टी से कटता, पानी श्वास सब प्रक्रिति से मिलता।
ना भूख लगने से जान चली जाती, ना पानी पीने की आस दुखी हो बह जाती,
ना ठण्ड में चमड़ी सिकुड़ फटती,
ना बारिश में भीगने से लाज चली जाती।
रोशिनी धुप भी न परेशान कर पाती।
चाहत का न व्यसन कसा होता, न हवस रूकती अंग अंग में मेरे,
और ना शांति राग द्वेष प्रेमभाव रुधिर से बहता,
कोई ज्ञान नहीं था गर सारे वस्तुओं का, व्यसन न होता इर्द-गिर्द के प्रलोभनों का।
काश सब ऒर चिरन्तर सौम्यता बहती,.......
ना कोई डाली के बिछड़ने की गिला शिकवा रहती, परिश्रम करने का न एहसास रहता।
....और परोपकार में करते रहता बन अंजान ,...
और इसका भी न मुझे गर्व अहंकार रहता,...
और जी जाता में साडेतीन सौ साल।।।।
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