Friday, 25 May 2012

Rista Wohi


इंतज़ार करता हु गुज़रे वक़्त का,. बीते मौसम के भीगे बारिश का।  
ठण्ड भी हर साल नयी आती है,. सूरज वोही होता है और गामी भद जाती है .
पेड़ों को टटोलने पार मुझे वोह पेड़ मिला,. जिसके बने कागज़ में लिखा, मेरा मन छिपा है .
जिसकी कोई कल्पना भी नहीं की हो। 
कैसा ये रिश्ता है , कोई कैसे मुझसे जुड़ गया।

चलते चलते एक पंची को देखा,इस ईमारत की बरसाती में बैठा है,
उसने वही घोसला भी बनाया और नए जीवन की शुरुआत भी हो चुकी थी,
वह रे नसीब देनेवाले, ईमारत खिली बिस्मार खड़ी है  और भाग्य इसका  उपभोग सयाना 
कैसा ये रिश्ता है, कोई इस ईमारत को बनता है। और कौन यहाँ रहता है।

फिर सोचा की आज से पहले इस शारीर में कोई और रहता होगा,
मेरी भटकती रूह को इसमें भर दिया होगा।
फिर इस शारीर को कितने लोगों से मिलना था, बनानेवाला भी होशियार है.
कैसा ये रिश्ता हिया, मिलता शारीर को है, 
रिश्ता रूह से करवा दिया।

लम्हा एक ही होता है, लोग इतने सारे, इन्ही लम्हों में कितने सारे करम होते है।
कैसे हिम इनमे गुथ्थे  है, कोई किस फैसले का कैसे कर्ज़दार बन जाता है।
कैसा ये रिश्ता है, करम कोई और करता है ,. और फल किसे चख्वा दिया।